रांचीः श्वेता ने किस्मत को हराया, बिना ‘रोशनी’ बनी टॉपर

रांची।

रांची विश्वविद्यालय की छात्रा श्वेता मंडल ने अपनी शारीरिक अक्षमता को मात देते हुए विश्वविद्यालय के ‘पीजी ह्यूमन राइट्स’ कोर्स में टॉप किया है।  
रांची विश्वविद्यालय के 29वें दीक्षांत समारोह में श्वेता को जब अपने कोर्स में टॉप करने के लिए स्वर्ण पदक से सम्मानित किया गया तो समारोह में मौजूद अधिकतर लोगों की आंखों में आंसू थे।

ऐसे गई आंखों की रोशनी

श्वेता का यह पदक जीतना इसलिए खास है क्योंकि वह देख नहीं सकती, उन्होंने ब्रेन ट्यूमर के कारण अपनी आंखों की रोशनी गवां दी थी। श्वेता मंडल को 6 साल की उम्र में ही ब्रेन ट्यूमर था। इस बीमारी से निजात पाने के लिए श्वेता का आॅपरेशन किया गया था, लेकिन इस आॅपरेशन का साइड इफेक्ट 11 साल बाद देखने को मिला और अचानक श्वेता की आंखों रोशनी चली गई। 
चिकित्सकों ने स्पष्ट कर दिया था कि अब श्वेता कभी देख नहीं पाएंगी लेकिन वह घबराई नहीं और अपने हौसले के साथ परिस्थितियों का सामना किया जिसका परिणाम सबके सामने है। श्वेता मंडल ने राष्ट्रीय पात्रता परीक्षा (नेट) में भी सफलता हासिल की है। वर्तमान में वह देश के प्रतिष्ठित संस्थान ‘जवाहर लाल नेहरू विश्वाविद्यालय’ (जेएनयू) से एम.फिल कर रही हैं।
स्वर्ण पदक प्राप्त करने के बाद श्वेता के शब्द थे, ‘मानवाधिकार हनन की बढ़ती घटनाएं इस तथ्य की पुष्टि करती हैं कि इंसान, इंसानियत को ही भुलाने पर आमादा है। हर व्यक्ति सम्मान से जीने का हक रखता है बशर्ते वह अपने अधिकारों को जाने। आंखों की रोशनी से ज्यादा जरूरी है आपके पास दृष्टि यानी ‘विजन’ का होना।’
ब्रेल की मदद के बिना ​हासिल की उपलब्धि 
श्वेता ने यह उपलब्धि बिना किसी तकनीक, चिकित्सा या ब्रेल की मदद के बगैर हासिल की है।   श्वेता ने अपनी दृष्टि खोने की घटना को याद करते हुए बताया, ‘धीरे-धीरे मेरी आंखों की रोशनी जानी शुरू हुई। शुरू में मुझे आसपास की चीजें धुंधली नजर आने लगी और कुछ दिनों के अंदर पूरी तरह से रोशनी चली गई।’ 
मां को बेटी पर नाज
श्वेता के माता-पिता दोनों डॉक्टर हैं। दीक्षांत समारोह में श्वेता के साथ आईं उनकी मां को बेटी की इस उपलब्धि गर्व था, इसकी खुशी उनके चेहरे पर साफ देखी जा सकती थी, उन्होंने बताया कि बेटी के लिए उन्होंने किसी तरह की चिकित्सीय या तकनीक की मदद नहीं ली। सिर्फ उपलब्ध तरीकों को ही आजमाने की कोशिश की। वह श्वेता की किताबों को अपने साथ क्लिनिक ले जाती थीं, चैप्टरों को पढ़ती थीं और रिकॉर्ड करती थीं। अगले दिन श्वेता उसी रिकॉर्डिंग्स को सुनती थी।
श्वेता ने अन्य दृष्टिबाधित छात्रों की तरह कभी भी पढ़ाई के लिए ब्रेल का सहारा नहीं लिया। उन्होंने बताया, ‘ना ही मैं ब्रेल में प्रशिक्षित थी और ना ही इस पर बहुत सी किताबें उपलब्ध थीं। मैं हायर क्लासेज में पहुंची तो पढ़ने के लिए कई किताबें और रेफरेंस जर्नल्स उपलब्ध थे। उनके लिए सबसे सहायक टेक्स्ट टू स्पीच सॉफ्टवेयर ‘जॉनिऐक ओपन शॉप सिस्टम’ रहा।
श्वेता को सिस्टम से है शिकायत
शिक्षण और रिसर्च में करियर बनाने के लिए प्रयासरत श्वेता को सिस्टम से कुछ शिकायतें भी हैं। वह कहती हैं, ‘ सिस्टम को यह पता होना चाहिए कि दिव्यांग छात्रों के लिए सिर्फ नियम अधिसूचित कर देने से उनका कुछ भला नहीं होगा।’