आज के ही दिन लॉन्च हुआ भारत का पहला सैटेलाइट:2 रुपए के नोट पर दिखने वाला आर्यभट्ट बना कैसे? 48 साल पुरानी कहानी
जून 1971 की बात है। प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के आवास पर एक मीटिंग बुलाई जाती है। इस बैठक में भारतीय राजदूत डीपी धर, साइंटिस्ट विक्रम साराभाई, उनके एक शिष्य यूआर राव और भारत में रूस के राजदूत निकोलाई पेगोव शामिल होते हैं।
मीटिंग शुरू होती है और साराभाई देश के पहले उपग्रह को बनाने का पूरा प्लान प्रधानमंत्री इंदिरा के सामने रखते हैं, लेकिन इस मिशन को पूरा करने के लिए जरूरत एक लॉन्च व्हीकल की होती है। जैसे ही साराभाई रूस के राजदूत पेगोव से इसकी मांग करते हैं।
निकोलाई पेगोव थोड़ा ठहरकर पूछते हैं- ‘पहले ये बताइए कि चीन ने जो उपग्रह लॉन्च किया वह कितना बड़ा है?’
इस सवाल को सुनकर हर कोई हैरान रह जाता है। फिर यूआर राव कहते हैं- 190 किलो।
निकोलाई पेगोव इंदिरा गांधी और साराभाई की तरफ देखकर कहते हैं कि लॉन्च व्हीकल देने के लिए मेरी एक शर्त है।
यूआर राव ने पूछा- कौन सी शर्त?
निकोलाई पेगोव बोले- भारत का पहला उपग्रह चीन से बड़ा होना चाहिए।
भारत इस शर्त को मान लेता है और सैटेलाइट बनाने की तैयारी शुरू हो जाती है। 4 साल बाद 19 अप्रैल को भारत अपना पहला सैटेलाइट आर्यभट्ट लॉन्च कर देता है।
आज आर्यभट्ट लॉन्चिंग के 48 साल पूरे होने के बाद इसके बनने से लेकर लॉन्च किए जाने तक की पूरी कहानी जानते हैं…
भारत में स्पेस मिशन के शुरुआत की कहानी…
4 अक्टूबर 1957 को रूस ने पहला सैटेलाइट स्पुतनिक लॉन्च किया। अगले ही साल नासा ने भी स्पेस मिशन पर काम करना शुरू कर दिया। हालांकि भारत में अभी तक इस पर कुछ खास काम शुरू नहीं हुआ था। 1960 और 1970 की दशक में जब रूस और अमेरिका ने अपना स्पेस मिशन शुरू किया तो भारतीय वैज्ञानिकों पर भी ऐसा करने का दबाव बढ़ने लगा।
अभी तक भारत में काम का ज्यादा स्कोप नहीं था, ऐसे में भारत के ज्यादातर बड़े साइंटिस्ट सीवी रमन, मेघनाद शाहा, रामानुजन आदि काम के लिए विदेश जाते थे। 21 नवंबर 1963 को केरल के त्रिवेंद्रम से देश का पहला रॉकेट लॉन्च किया गया। इस रॉकेट की रेंज 55 किलोमीटर थी। इससे एक साल पहले 1962 में ही स्पेस फतह करने के लिए देश में ‘द इंडियन नेशनल कमेटी फॉर स्पेस रिसर्च’ की शुरुआत हुई। 6 साल बाद 1968 में इस संस्था का नाम बदलकर इंडियन स्पेस रिसर्च ऑर्गेनाइजेश यानी ISRO कर दिया गया।
इसी वक्त विक्रम साराभाई सोवियत रूस और अमेरिका की यात्रा पर गए थे। उनके दिमाग में भारत के लिए स्पेस मिशन को शुरू करने का ख्याल आया। सोवियत रूस इस समय तक पर्दे के पीछे से स्पेस मिशन पर काम कर रहा था, लेकिन अमेरिका ने साराभाई को भरोसा दिया कि वह भारत को स्पेस लॉन्च करने में मदद करेगा।
कुछ दिन बाद यूआर राव एक प्लान लेकर साराभाई के पास गए। साराभाई ने इस स्पेस मिशन को अंजाम तक पहुंचाने की जिम्मेदारी राव के ही कंधे पर डाल दी। इसके बाद राव ने देश के टॉप 25 इंजीनियर्स के साथ मिलकर इस मिशन पर काम शुरू कर दिया।
अमेरिका भाड़े पर रॉकेट देने को तैयार हुआ तो USSR खुद मदद के लिए आगे आया
अब यूआर राव अपनी टीम के साथ उपग्रह बनाने के काम में लग गए। सबसे पहले इन्होंने 100 किलो के एक उपग्रह का डिजाइन तैयार किया। इस उपग्रह को लॉन्च करने के लिए अमेरिकी स्पेस एजेंसी नासा ने स्काउट रॉकेट देने की बात कही थी।
इसी बीच एक रोज प्रधानमंत्री इंदिरा के पास रूस में भारत के राजदूत डीपी धर फोन करते हैं। इस बातचीत में वह कहते हैं कि रूस भारत को उपग्रह लॉन्च करने में मदद देने के लिए तैयार है। जब इसकी जानकारी विक्रम साराभाई को हुई तो वो बेहद खुश हुए और पहले उपग्रह पर काम शुरू हो गया।
इसके लिए रूस और भारतीय साइंटिस्टों के बीच कई मीटिंग भी हुई। अप्रूव होने से पहले इस प्रोजेक्ट पर त्रिवेंद्रम में काम चला, लेकिन इसके बाद बेंगलुरु के पीन्या इलाके में इस पर काम शुरू हुआ।
चीन से दोगुने भार के उपग्रह पर काम शुरू हो गया
रूस की शर्तों को ध्यान में रखते हुए प्रोजेक्ट अप्रूव होने के बाद नए सिरे से उपग्रह बनाने के काम को शुरू किया गया। 24 अप्रैल 1970 को चीन ने 173 किलो का पहला सैटेलाइट लॉन्च किया था। ऐसे में भारतीय वैज्ञानिकों ने 350 किलो के उपग्रह का डिजाइन करना शुरू कर दिया। ये वजन में चीन के उपग्रह से दोगुना था।
पहले स्टेज का काम पूरा होने के बाद यूआर राव अपनी टीम के साथ मीटिंग के लिए रूस पहुंचे। सोवियत रूस को भारतीय वैज्ञानिकों पर भरोसा नहीं था। ऐसे में उन्होंने भारत को ऑफर दिया कि भारत सिर्फ पेलोड बनाए और उसे सोवियत सैटेलाइट के साथ लॉन्च करे। राव ने रूस के इस प्रस्ताव को ठुकरा दिया। आखिरकार सोवियत रूस राव की जिद के आगे मान गया।
दिसंबर 1971 में विक्रम साराभाई की हार्ट अटैक से मृत्यु हुई तो लगा कि अब प्रोजेक्ट रुक जाएगा, लेकिन फिर MGK मेनन ने इसरो के अंतरिम चीफ के तौर पर कमान संभाली। अगले साल 1972 में सतीश धवन ने इसरो की जिम्मेदारी संभाली। मेनन और उसके बाद धवन उपग्रह बनाने के काम को पहले की तरह आगे बढ़ाते रहे।
जब इंदिरा ने पूछा- इस उपग्रह से देश को क्या फायदा है?
फरवरी 1972 में एक बार फिर से इस प्रोजेक्ट पर त्रिवेंद्रम में बैठक आयोजित की गई। ये बैठक सोवियत रूस के साथ उपग्रह लॉन्च करने से पहले समझौते को अंतिम रूप देने के लिए हुई थी। इस बैठक में इंदिरा गांधी का वैज्ञानिकों से सवाल था- आखिर इस उपग्रह से देश को फायदा क्या है?
साइंटिस्ट यूआर राव ने कहा- अगर हम अंतरिक्ष को फतह करना चाहते हैं तो हमारे पास ये पहला मौका है। हम बाकी देशों से कम खर्च में अपने स्पेस मिशन को पूरा कर सकते हैं। इससे देश के एक हिस्से से दूसरे हिस्से में कम्युनिकेशन आसान हो जाएगा। इसे लॉन्च करने के बाद ही हम अंतरिक्ष के बारे में और ज्यादा जान पाएंगे।
इंदिरा गांधी का दूसरा सवाल था- इसमें कितने रुपए खर्च होंगे?
यूआर राव ने अपनी टीम के साथ बात करने के बाद कहा कि करीब 3 करोड़ रुपए खर्च होंगे। इसके बाद इंदिरा गांधी ने ओके कहकर प्रोजेक्ट को हरी झंडी दे दी।
1974 में रखी गई उपग्रह लॉन्च करने की तारीख टली
रूस के साथ समझौता होने के बाद 1974 में उपग्रह को लॉन्च करने का फैसला लिया गया। अब तक रॉकेट लॉन्च करने का काम केरल में थुंबा से होता था, लेकिन धवन ने सैटेलाइट बनाने का काम बेंगलुरु ले जाने का फैसला किया। यहां पीनया इंडस्ट्रियल एरिया में चार शेड्स में काम शुरू हो गया। जुगाड़ के व्यवस्था से काम शुरू हुआ। काम करने वाले ज्यादातर लोग ऐसे थे, जिन्होंने कभी उपग्रह नहीं देखा था।
मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक सोवियत वैज्ञानिक 6 महीने में सिर्फ एक बार मीटिंग करते थे, इस वजह से वहां से कोई खास मदद नहीं मिल रही थी। काम समय पर पूरा नहीं होने की वजह से लॉन्च की तारीख आगे बढ़ाकर अप्रैल 1975 कर दी गई। मार्च में सैटेलाइट बनकर तैयार हुआ तो इंदिरा गांधी के पास इस उपग्रह के तीन नाम मैत्री, आर्यभट्ट और जवाहर भेजे गए। इंदिरा ने आर्यभट्ट नाम पर मुहर लगाई।
आखिरी दिन जब आर्यभट्ट लॉन्च हुआ…
19 अप्रैल 1975 को दोपहर के 12 बजे थे। रूस के कपुस्टिन यार शहर में आर्यभट्ट उपग्रह लॉन्च होने के लिए तैयार था। इसरो प्रमुख सतीश धवन, यूआर राव के साथ भारत के 30 वैज्ञानिक वहां मौजूद थे। तभी काउंटडाउन शुरू हुआ…10, 9,8,7…..1 होते ही रूसी भाषा में ‘लेट अस गो’ की आवाज आते ही आर्यभट्ट की सफल लॉन्चिंग होती है।
12 मिनट बाद ये उपग्रह अपने तय कक्षा में स्थापित हो जाता है। इस पूरे मिशन को अंजाम देने वाले यूआर राव की आंखों में आंसू आ जाते हैं। हालांकि पांचवें दिन सैटेलाइट से संपर्क टूट गया, लेकिन बाद में संपर्क फिर से जुड़ गया। अंतरिक्ष में करीब 17 साल रहने के बाद सैटेलाइट आर्यभट्ट 10 फरवरी 1992 को पृथ्वी के वातावरण में लौट आया।