सुपर 301: अमेरिका का कारोबारी प्रतिशोध हमेशा भारत पर ही क्यों?

अमेरिका के दोहरे मानदंड और भारत का व्यापार
‘अमेरिका दोहरे मानदंडों का दोषी है और वह हर उस क्षेत्र में बाधाएं खड़ी कर रहा है, जहां हम प्रतिस्पर्धी बनते हैं।’ यह बयान भारत के पूर्व वाणिज्य मंत्री का है। हालांकि यह डोनाल्ड ट्रंप सरकार द्वारा घोषित टैरिफ के खिलाफ एक टिप्पणी की तरह लग सकता है, लेकिन यह स्थिति 35 साल पुरानी है। राजीव गांधी मंत्रिमंडल के मंत्री दिनेश सिंह ने 1989 में अमेरिकी नीतियों पर यह प्रतिक्रिया दी थी।
सालों पहले जापान था अमेरिका का ‘दुश्मन’
अस्सी के दशक के अंत में, अमेरिकी सरकार की नीतियों का मुख्य लक्ष्य जापान था, जो उस समय अमेरिका का प्रमुख आर्थिक प्रतिद्वंद्वी था। हालांकि, समय के साथ भारत भी अमेरिका के व्यापार-नीति में एक महत्वपूर्ण लक्ष्य बन गया। यह बदलाव ऐतिहासिक दृष्टि से महत्वपूर्ण है।
चीन से अमेरिका की युद्ध नीति
2025 में, डोनाल्ड ट्रंप ने चीन को अपना सबसे बड़ा लक्ष्य बनाकर एक व्यापार युद्ध की शुरुआत की थी। दीप रूप से देखें तो यह समझ में आता है, क्योंकि चीन ने अमेरिका से मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर में दबदबा हासिल कर लिया था। लेकिन अब अमेरिका ने भारत के खिलाफ दंडात्मक कार्रवाई की संभावना पर ध्यान केंद्रित करना शुरू कर दिया है।
चीन को मोहलत, भारत पर सख्ती
अमेरिका-चीन टैरिफ विवाद कम हो गया है लेकिन भारत के साथ व्यापार वार्ता में ठहराव आ गया है। अमेरिका ने रूस से चीन के कच्चे तेल की खरीद को नजरअंदाज किया है, जबकि भारत पर नज़रें गड़ाए हुए है।
ट्रंप ने अमेरिकी-चीन टैरिफ सीजफायर को 90 दिनों के लिए बढ़ा दिया, जबकि भारत पर टैरिफ और जुर्माना लगाया गया। इसका नतीजा यह हो सकता है कि भारत को अमेरिका को निर्यात पर 50% टैरिफ लगाने की चेतावनी दी गई है।
अमेरिका का दोहरा मानदंड
हाल में, अमेरिकी विदेश मंत्री ने अमेरिका के ताजा दोहरे मानदंडों का बचाव किया। उन्होंने कहा कि रूस से कच्चे तेल की खरीद पर चीन पर सेकेंडरी टैरिफ लगाने से वैश्विक ऊर्जा कीमतें बढ़ सकती हैं। जबकि अमेरिका ने दिल्ली पर अतिरिक्त टैरिफ लगा दिया है।
अमेरिका के दो पूर्व राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकारों में से एक इवान ए. फेगेनबाम का मानना है कि अमेरिका किस तरह से चीन विरोधी गठबंधन से भारत विरोधी गठबंधन बनाने की दिशा में बढ़ रहा है, यह अमेरिकी कूटनीतिक इतिहास में एक अजीब स्थिति बन गई है।
भारत का सुपर 301 लक्ष्य बनना
1980 के दशक में, जापान अमेरिका का सबसे बड़ा पारस्परिक व्यापार समस्या था, विशेष रूप से तकनीकी क्षेत्र में। अमेरिकी सरकार ने जापान के खिलाफ कार्रवाई शुरू की थी। 1988 में, जॉर्ज एच. डब्ल्यू. बुश के राष्ट्रपति बनने के बाद दंडात्मक कार्रवाई का दौर शुरू हुआ।
अमेरिका के प्रमुख मांगों में शामिल था भारतीय बाजार में अमेरिकी कंपनियों के लिए आसान पहुंच। इस संदर्भ में, भारत ने अमेरिका के दोहरे मानदंडों के खिलाफ एक ठोस रुख अपनाया।
अमेरिकी धमकियों का असर
अमेरिका ने भारतीय निर्यातकों के लिए एक बड़ा बाजार होने का लाभ उठाने की कोशिश की, लेकिन भारत ने भी अपने हितों की रक्षा की। 1989 में, अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति ट्रंप ने जापान की नीतियों पर नाराजगी व्यक्त की थी और उन्होंने भारतीय बाजार में आसान पहुंच की मांग की।
35 साल बाद वही दौर लौट आया
1990 में, अमेरिका ने ब्राजील और जापान को सुपर 301 लिस्ट से हटा दिया लेकिन भारत को दो महीने में कार्रवाई की चेतावनी दी। हालाँकि, यह कार्रवाई नहीं हुई। भारत ने 1991 में अपनी अर्थव्यवस्था को खोला और उदारीकरण के उपायों ने कई अमेरिकी चिंताओं का समाधान किया।
हालांकि, अब ट्रंप के शासन में भारत फिर से निशाने पर आ गया है। यह एक उदाहरण है कि कैसे अमेरिका की विदेश नीति समय के साथ बदलती है।
संक्षेप में, यह सामान्य रूप से देखा जा सकता है कि अमेरिका की नीति में भारत के प्रति दोहरे मानदंड और व्यापार बाधाएं खड़ी करने की प्रवृत्ति बनी हुई है। इसका ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि यह विषय केवल आर्थिक नहीं, बल्कि राजनीतिक और कूटनीतिक दृष्टिकोण से भी महत्वपूर्ण है।