खेल

बसपा को पुराने फॉर्म में लाने की तैयारी में मायावती

लखनऊ। मायावती राजनीति में मंझी हुई खिलाड़ी हैं। उनके अब तक के फैसलों और कार्यशैली पर नजर डालें तो मायावती सड़क पर संघर्ष करने की जगह जातीय और सियासी समीकरण पर ज्यादा विश्वास रखती हैं। उन्होंने राज्यसभा सांसद रामजी गौतम और रणधीर बेनीवाल को नेशनल कोऑर्डिनेटर बनाकर इस बार दलित, मुस्लिम और ब्राह्मण की सोशल इंजीनियरिंग का दांव चला है।

2007 में सोशल इंजीनियरिंग के बलबूते ही बसपा यूपी की सत्ता में पूर्ण बहुमत से आई थी। हाल के दिनों में पार्टी में हुए उलट-फेर के बाद एक बार फिर मायावती की कार्यशैली चर्चा में है। पार्टी में नेशनल कोऑर्डिनेटर रहे भतीजे आकाश आनंद को पहले पद और फिर पार्टी से बाहर का रास्ता दिखा दिया। इससे पहले उन्होंने आकाश के ससुर अशोक सिद्धार्थ काे भी पार्टी से बाहर कर साबित कर दिया कि पार्टी में वही ‘सुप्रीमो’ हैं। सवाल ये हैं कि आखिर मायावती इस तरह के फैसले क्यों ले रही हैं? 70 बरस की मायावती के बाद दलित राजनीति, खासकर बसपा का वारिस कौन होगा? आकाश आनंद के सामने अब कौन सा रास्ता बचा है? राजनीतिक चिंतकों का मानना है कि मायावती ने जिस तरह से भतीजे आकाश आनंद को आगे बढ़ाया और अपना उत्तराधिकारी घोषित किया, इससे उन पर परिवारवाद के आरोप लगने लगे थे। यहां तक कि आकाश के ससुर अशोक सिद्धार्थ के बेटे की शादी में पार्टी के तमाम बड़े नेता और अलग-अलग प्रदेश के लोग पहुंचे थे। इससे भी साफ संदेश गया था कि अब पार्टी में परिवारवाद हावी है।

दलित राजनीति पर नजर रखने वाले दिल्ली के एक प्रोफेसर से हमने इस बारे में बात की। वह कहते हैं- मायावती के हाल के फैसले ने साफ कर दिया कि बसपा में 1 से हजार नंबर तक वही सुप्रीमो हैं। उन्होंने एक झटके में परिवारवाद के आरोपों को धराशायी कर दिया। उनके फैसले पर जिस तरह की प्रतिक्रियाएं आ रही हैं, इससे साफ है कि इस गिरती हुई हालत में भी बसपा की प्रासंगिकता बनी है।

आने वाले चुनाव में वह अब भी प्रभाव डालने की हैसियत में हैं। पार्टी में किसका कद कितना बड़ा होगा, ये हमेशा से बसपा में मायावती ही तय करती रही हैं। कैडर उसी के मुताबिक फैसले का पालन भी करता है। मायावती के करीबी रहे यूपी सरकार के एक पूर्व मंत्री कहते हैं- वे हमेशा से चौंकाने वाले फैसले लेती रही हैं। आज भाजपा या सपा में ओबीसी समाज के जो गैर-यादव चेहरे दिखते हैं, वो कभी मायावती के खास हुआ करते थे। बसपा का टिकट मिलना जीत की गारंटी हुआ करती थी। हर नेता को उन्होंने अचानक पार्टी से बाहर का रास्ता दिखाया है। मायावती का आज भले ही जनाधार कम हुआ हो, लेकिन तेवर वही पुराने हैं। पार्टी में उनके वर्चस्व को कोई चुनौती नहीं दे सकता।

Related Articles

Back to top button