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'राज्यपाल, मंत्रिपरिषद की सलाह लेने के लिए बाध्य', तेलंगाना सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में कहा

नई दिल्ली । तेलंगाना सरकार ने बुधवार को सुप्रीम कोर्ट में कहा कि राज्यपाल अभियोजन स्वीकृति देने के मामले में भी मंत्रिपरिषद की सलाह लेने के लिए बाध्य होते हैं। जब कोई मंत्री या मुख्यमंत्री किसी आपराधिक मामले में शामिल हों, तभी राज्यपाल पर ये बाध्यता नहीं होती। भारत के मुख्य न्यायाधीश जस्टिस बीआर गवई की अध्यक्षता वाली पांच सदस्यीय संविधान पीठ, राष्ट्रपति और राज्यपालों के लिए विधेयक को मंजूरी देने की समयसीमा तय करने के मामले में सुनवाई कर रही है। इस पीठ में जस्टिस गवई के अलावा जस्टिस सूर्यकांत, जस्टिस विक्रम नाथ, जस्टिस पीएस नरसिम्हा और जस्टिस एएस चंदुरकर भी शामिल हैं।
तेलंगाना सरकार की ओर से पेश वरिष्ठ अधिवक्ता निरंजन रेड्डी ने संविधान पीठ के समक्ष दी अपनी दलील में कहा कि राष्ट्रपति के संदर्भ पर सुनवाई करते समय सर्वोच्च न्यायालय को विधेयक पर राज्यपाल के ‘अंतर्निहित पूर्वाग्रहों’ पर भी गौर करना चाहिए। सुनवाई के नौवें दिन तेलंगाना के वकील ने कहा कि अनुच्छेद 200 के प्रावधान के तहत राज्यपाल के पास कोई विवेकाधिकार नहीं होता और वे मंत्रिपरिषद की सहायता और सलाह लेने के लिए बाध्य होते हैं।
अनुच्छेद 200 राज्य विधानमंडल द्वारा पारित विधेयकों के संबंध में राज्यपाल की शक्तियों को नियंत्रित करता है, जिससे उन्हें विधेयक को मंजूरी देने, मंजूरी रोकने, विधेयक को पुनर्विचार के लिए वापस करने या राष्ट्रपति के विचार के लिए विधेयक को आरक्षित करने का अधिकार मिलता है। मंगलवार को, सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि राज्यपालों से समय के भीतर कार्रवाई करने की अपेक्षा की जाती है, भले ही अनुच्छेद 200 में ‘यथाशीघ्र शब्द न हो।
अदालत राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू द्वारा भेजे गए 14 प्रश्नों की जांच कर रही है, जिनमें राष्ट्रपति ने पूछा है कि क्या न्यायिक आदेश राज्य विधानसभाओं द्वारा पारित विधेयकों पर विचार करते समय राष्ट्रपति द्वारा विवेकाधिकार के प्रयोग के लिए समय-सीमाएं निर्धारित कर सकते हैं। मंगलवार को इस मामले पर सुनवाई के दौरान कर्नाटक सरकार ने दलील दी कि सांविधानिक व्यवस्था के तहत, राष्ट्रपति और राज्यपाल केवल नाममात्र के प्रमुख हैं, जो केंद्र और राज्य दोनों जगह मंत्रिपरिषद की सलाह पर और उनकी मदद से काम करने के लिए बाध्य हैं।

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