राजनीतिक

मोदी की विदेश यात्रा और श्राद्धपक्ष के कारण अध्यक्ष पद के लिए देरी का कोई उपयुक्त व्यक्ति नहीं मिला।

हस्तक्षेप/हरीश बी. शर्मा

भाजपा में राष्ट्रीय अध्यक्ष पद पर फैसला ‘बीरबल की खिचड़ी’ बनता जा रहा है। राजनीतिक पार्टी चाहे भाजपा हो, कांग्रेस या कोई अन्य, जब भी कोई पार्टी सत्ता में होती है, तो संगठन सरकार की होती है। लेकिन भाजपा से यह अपेक्षा की जाती है कि वह एक संगठन आधारित पार्टी है, जिसमें लोकतांत्रिक मूल्यों की रक्षा का भाव है। हालांकि, इन दिनों बन रहे समीकरणों से यह स्पष्ट हो रहा है कि जे.पी. नड्डा ही अध्यक्ष बने रहेंगे। कम से कम सितंबर मध्य तक अध्यक्ष पद को लेकर कोई हलचल नहीं है। इसका एक बड़ा कारण प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की विदेशी यात्रा है। जब तक वे वापस लौटते हैं, श्राद्ध पक्ष शुरू हो जाएगा, जिसे भाजपा टालेगी।

कहने को उपराष्ट्रपति पद का चुनाव एक बड़ा बहाना है, जिसके चलते भाजपा एक लाइन का प्रस्ताव ले सकती है कि राष्ट्रीय अध्यक्ष पद पर अभी जे.पी. नड्डा काम करते रहेंगे। उपराष्ट्रपति पद के चुनाव के बाद इस पर विचार होगा। यह भी एक हकीकत है कि उपराष्ट्रपति का चुनाव एनडीए के लिए एक बड़ी चुनौती है, और इसके प्रति लापरवाह होना खतरनाक हो सकता है। इसलिए पूरा ध्यान उपराष्ट्रपति चुनाव पर होगा, और इसके बाद ही देखा जाएगा कि क्या करना है।

इस बीच, संघ के शताब्दी वर्ष व्याख्यान में संघ प्रमुख मोहन भागवत ने साफ कर दिया है कि भाजपा के साथ उनके संबंध सलाह के हैं। उनका यह कहना जे.पी. नड्डा द्वारा लोकसभा चुनाव से पहले की गई बात से भी जुड़ता है। दोनों ही दिग्गजों ने इस बात से इनकार किया है कि दोनों की संगठनों में किसी प्रकार का दखल है।

हालांकि, यह मानना मुश्किल है। यदि ऐसा होता तो भाजपा कभी का अध्यक्ष बना देती, क्योंकि वर्तमान में नरेंद्र मोदी या अमित शाह की इच्छा को काटने वाला कोई नहीं है। यह इस तथ्य से भी स्पष्ट होता है कि जे.पी. नड्डा को जो कार्यकाल विस्तार मिला, वह भी मोदी-शाह की मेहरबानी से ही था। अन्यथा, कार्यकाल बढ़ाने की बात कहां से आई? लेकिन जब अध्यक्ष पद के लिए कई नामों पर सहमति नहीं बन पाई, तब कार्यकाल विस्तार का फार्मूला लाया गया, जो अब तक काम कर रहा है।

संभव है कि संघ का अपनी तरफ से कोई नाम नहीं हो, लेकिन जो नाम आगे बढ़ाए जा रहे हैं, वे भी संघ के लिए अनुकूल नहीं हो सकते। संघ में आमतौर पर रुचि से अधिक अरुचि देखी जाती है, क्योंकि संघ यह मानता है कि जो संगठन के साथ है, वह निश्चित रूप से संघ के विचारों से ओतप्रोत है। लेकिन यह देखना भी आवश्यक है कि उस व्यक्ति को इतने बड़े पद पर आसीन कराने के लिए अरुचि कितने लोगों में है। अगर ऐसा होता है तो दो घाटे होंगे। पहला, उसे संगठन में भरोसा नहीं मिल पाएगा और दूसरा, वह काम चलाने के लिए ऐसे कार्यकर्ताओं को लाएगा, जिससे संगठन का स्वरूप बिगड़ सकता है।

इसलिए जिनके प्रति अरुचि हो, उनसे बचते हुए रुचिपूर्ण व्यक्ति को ही अध्यक्ष बनाने का प्रयास किया जा रहा है। इसके लिए इंतजार करना होगा। शायद अगले दिनों में होने वाली मोदी-भागवत की बैठक में कोई रास्ता निकल आए।

निष्कर्ष

भाजपा का राष्ट्रीय अध्यक्ष पद एक जटिल मुद्दा बन चुका है, जिसमें कई कारक प्रभाव डाल रहे हैं। संगठन में एकजुटता, नेताओं के बीच के रिश्ते, और संघ का दृष्टिकोण सभी महत्वपूर्ण हैं। यह देखना होगा कि आगामी घटनाक्रम क्या रूप लेता है और क्या भाजपा अपने संगठन की बुनियाद को मजबूत करने में सफल होती है।

आपके सुझावों का स्वागत है। आप 9672912603 पर संदेश भेज सकते हैं।

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