श्रद्धा का प्रतिरूप है श्राद्ध:पितरों की सेवा और तृप्ति का पर्व है पितृ पक्ष,17 सितंबर से 2 अक्टूबर तक रहेगा

श्राद्ध श्रद्धा का प्रतिरूप है। जिसके मन में अपने पितरों के प्रति श्रद्धा नही वह श्राद्ध करने का अधिकारी नही हो सकता। श्राद्ध कर्म पितृ ऋण चुकाने की क्रिया है। इसमें पुरुखों के प्रति कृतज्ञता का भाव होता है। मनु द्वारा शुरू की गयी श्राद्ध कर्म की परंपरा में तीन पीढ़ियों के श्राद्ध का विधान है, यानि पिता, पितामह, प्रपितामह। यानि व्यक्ति को अपनी तीन पीढ़ियों का श्राद्ध करना चाहिए पिता, दादा और परदादा का । तीन पीढ़ियों के तीन देवता क्रमश: वसु, रुद्र, आदित्य माने गए हैं। श्राद्ध का समय कुतुब बेला अर्थात् दोपहर का मान्य है।

महर्षि जाबलि के अनुसार पितृ पक्ष में श्राद्ध करने से पुत्र आयु, आरोग्य, अतुल एश्वर्य एवम इच्छित वस्तुओं की प्राप्ति करता है। वेद व्यास के अनुसार जो व्यक्ति श्राद्ध द्वारा पितरों को संतुष्ट करता है, वह पितृ ऋण से मुक्त होकर ब्रह्म लोक को जाता है। कूर्म पुराण के अनुसार श्राद्ध न करने का कुफल पितृ पक्ष में पितृ श्राद्ध न पाने पर निराश होकर दीर्घ स्वांस लेते हुए गृहस्थ को दारुण दुख का श्राप देकर पितृलोक में वापस चले जाते हैं।

पंडित आचार्य अमित भारद्वाज बताते हैं कि श्राद्ध में तिल का प्रयोग महत्वपूर्ण है। गरुङ पुराण के अनुसार तिल परमात्मा के स्वेद (पसीने) की बूंदे हैं। उड़द का प्रयोग उत्तम माना गया है इसके अलावा कंदमूल, फल, दूध से बने पदार्थ का प्रयोग करना चाहिए। पितरों का आवास दक्षिण दिशा में है, अत: श्राद्ध दक्षिणाभिमुख होकर करना चाहिए इसके लिए जनेऊ को दाहिने कंधे पर रखा जाता है।

श्राद्ध के दौरान कुशा को पवित्र माना गया है। देव कार्य में काटी हुई कुशा प्रयुक्त होती है जबकि श्राद्ध में जड़ सहित। माना जाता है की कुशा का ऊर्ध्व भाग देवताओं का मध्य भाग मनुष्य का एवम जड़ें पितरों की होती हैं। श्राद्ध के समय उच्चारित नाम, गोत्र और मंत्रों से श्राद्ध में अर्पित द्रव्य वायु रूप में प्रविष्ट होकर पितरों को प्राप्त होते हैं। श्राद्ध के द्रव्य तिल, उड़द, जौ, चावल, जल, कंदमूल फल व घृत हैं।