214 फीट ऊंचा मंदिर, रोज बदलता है ध्वज:पुरी की रथ यात्रा के लिए क्यों सोने की कुल्हाड़ी से काटी जाती है लकड़ी?
भगवान जगन्नाथ की नगरी पुरी इन दिनों गुलजार है। शहर की रौनक देखते ही बनती है। चिलचिलाती धूप में भी लोगों के चेहरे पर जरा सी भी शिकन नहीं है। दो दिन बाद यानी रविवार से रथ यात्रा के लिए रथ बनना शुरू हो जाएंगे। उसके लिए लकड़ियां इकट्ठी की जा रही हैं। करीब 2 महीने बाद रथ तैयार हो जाएंगे। उसके बाद 9 दिनों की रथ यात्रा की शुरू होगी।
आज पंथ सीरीज में कहानी जगन्नाथ भगवान और उनकी रथ यात्रा की…
शाम पांच बजे का वक्त। जगह ओडिशा के पुरी का जगन्नाथ मंदिर। कानों में समुद्र की लहरों की गूंज और सन-सन करती हवाएं। सैकड़ों की संख्या में भक्त मंदिर के बाहर मौजूद हैं। हर किसी की नजरें आसमान पर टिकी हैं। मैं सोचती हूं कि सब ऊपर की तरफ क्यों देख रहे हैं?
तभी धोती पहने दो नौजवान आते हैं। उनके पीठ पर अलग-अलग तरह के झंडे बंधे हैं। वे मंदिर की दीवार की तरफ पीठ करके खड़े हो जाते हैं। जय जगन्नाथ का जयकारा आसमान में गूंजने लगता है।
मैं कुछ समझ पाती, दोनों युवा पीठ की तरफ से ही तेजी से मंदिर के ऊपर चढ़ने लगते हैं। चंद मिनटों में वे ऊपर गुंबद के पास पहुंच जाते हैं। इसके बाद वे आगे की तरफ मुड़ जाते हैं। हाथ के सहारे ऊपर चढ़ने लगते हैं। कुछ मिनटों में वे मंदिर के शिखर पर पहुंच जाते हैं।
मैं अंदर से थोड़ी डरी हूं। दिल तेजी से धड़क रहा है कि कहीं इनका पांव फिसल गया तो क्या होगा। पहली बार मैं ऐसा नजारा देख रही हूं। ऐसा लग रहा है आंखों में कोई एनिमेटेड फिल्म का सीन चल रहा हो।
सबसे पहले वे पुराने ध्वज को उतारते हैं। फिर नया ध्वज लगाते हैं। इसके बाद ऊपर से ही मशाल लहराते हैं। नीचे मौजूद लोग दूर से ही मशाल की बल्लियों की आरती लेते हैं।
मुझे बताया गया कि हर दिन मंदिर का ध्वज ऐसे ही बदला जाता है। इसमें एक दिन भी चूक नहीं होती है। चाहे बारिश आए या तूफान। मान्यता है कि अगर एक दिन ध्वज नहीं बदला गया तो 18 साल के लिए मंदिर बंद हो जाएगा।
अब शाम ढल चुकी है। मैं मंदिर के बाहर इधर-उधर घूमती हूं। यहां हर गली में पुजारियों के घर हैं। कुछ पुजारियों से मैंने मंदिर के बारे में पूछा, भगवान जगन्नाथ के बारे में पूछा, लेकिन उन्होंने मना कर दिया। उनका कहना था कि भगवान की निजी बातें बताने पर वे नाराज हो जाते हैं। फिर उन्होंने कहा कि सुबह आना मंदिर में घूम लेना।
अगले दिन सुबह मैं फिर से मंदिर पहुंचती हूं। मंदिर के मुख्य द्वार से पहले बाहर एक स्तंभ है, जिसके चारों ओर परात रखी हैं, जिसमें लोग पैसे चढ़ा रहे हैं। फिर एक द्वार है, जिसके दरवाजों पर सिंह बने हुए हैं। इसे सिंह द्वार कहा जाता है।
सुबह 5 बजे दरवाजा खुलता है। पुजारी लाइट जलाते हैं। आरती होती है। फिर सब आगे बढ़ते हैं। 6-7 फीट चौड़ी 14 सीढ़ियां हैं। यहां से भक्त लेट-लेटकर आगे बढ़ रहे हैं। मान्यता ये कि ऐसा करने से नुकसान पहुंचाने वाले ग्रहों से मुक्ति मिलती है।
गर्भगृह में भगवान जगन्नाथ, उनके भाई बलराम और बहन सुभद्रा की मूर्तियां हैं। सभी मूर्तियां लकड़ी की बनी हैं। यहां पूजा के विधि-विधान भी खास हैं। भगवान को नहलाना हो, वस्त्र पहनाना हो, सब्जी काटनी हो, पानी लाना हो, सामान समेटना हो या भोग लगाना हो, हर काम के लिए एक-एक व्यक्ति है। वही हर दिन उस काम को करेगा, कोई दूसरा नहीं।
मंदिर के पुजारी सूर्यनारायण रथ शर्मा बताते है, ‘सुबह भगवान उठने के बाद दंत-मंजन करते हैं। उन्हें लकड़ी और कपूर दिया जाता है। फिर वे बिंब स्नान करते हैं। यानी सात हाथ की दूरी से शीशे में अपना बिंब देखते हैं। वह शीशा सूर्य का प्रतीक होता है और मंत्रों से स्थापित किया जाता है।
साल में एक बार बरसात के मौसम में भगवान प्रत्यक्ष स्नान भी करते हैं। यानी वे पानी से नहाते हैं। ऐसी मान्यता है कि जब वे पानी से नहाते हैं, तो उन्हें बुखार आ जाता है। इसके बाद 15 दिन तक वे आराम करते हैं। इस दौरान उनका दर्शन नहीं होता है। पूजा की विधि भी बदल जाती है। उन्हें सिर्फ सफेद फूल चढ़ाया जाता है। सफेद कपड़े पहनाए जाते हैं।
इसके बाद फुलरी के तेल से उनकी मालिश होती है। इलाज के लिए राजवैद्य को बुलाया जाता है। वे आयुर्वेदिक जड़ी-बूटियां देते हैं। इसको लेकर पुरी में एक कहावत भी है कि एलोपैथ से दूर रहो, क्योंकि जगन्नाथ भी आयुर्वेद लेते हैं।
स्नान के बाद भगवान का श्रृंगार होता है। भोग लगता है। सालधूप पूजा होती है। इसके बाद दोबारा श्रृंगार किया जाता है। यही प्रक्रिया दोपहर और शाम में भी दोहराई जाती है। शाम में भोग लगने के बाद भगवान सोने के लिए जाते हैं।
इसके लिए पलंग लगाया जाता है। गद्दा डाला जाता है। उनके लिए पान, पानी और नारियल रखा जाता है। इस पूरे काम के लिए 119 लोग लगते हैं।
गर्भगृह के दाहिने हाथ की तरफ आनंद बाजार है। मिट्टी की हांडियों में दाल-भात रखे हैं। हर पांच कदम पर धोती पहने लोग दाल-भात बेच रहे हैं। दाल-भात यहां का प्रसाद है। किसी को होटल में खाना ले जाना हो, घर ले जाना हो या यहां बैठकर खाना हो, हर तरह की व्यवस्था है।
एक आदमी को खाना हो तो 100 रुपए का प्रसाद आता है। इसमें दाल, भात, सब्जी और खीर होती है। एक हांडी भर के खाना ले जाना हो, तो उसके लिए 300 रुपए देने होते हैं।
मुझे बताया गया कि यहां 56 प्रकार के प्रसाद बनते हैं। इसमें नारियल के लड्डू, मावे के लड्डू, दही चावल, अलग-अलग तरह के पेठा, मालपुआ, दाल-भात, कई प्रकार की सब्जियां, खीर, खिचड़ी जैसी चीजें शामिल होती हैं। प्रसाद बनाने के लिए कुएं के पानी का इस्तेमाल होता है, जिसे सोने के घड़े से निकाला जाता है।
आपको जानकर हैरानी होगी कि ये प्रसाद 742 चूल्हों पर एक साथ बनते हैं। इसके लिए एक के ऊपर एक आठ हांडियां चढाई जाती हैं। सबसे पहले ऊपर वाली हांडी का खाना पकता है, उसे उतारा जाता है, फिर नीचे वाली का पकता है।
इस तरह आठों हांड़ियों से खाना उतारा जाता है। यही प्रक्रिया सभी 742 चूल्हों के लिए अपनाई जाती है। प्रसाद बनाने के लिए करीब 1500 लोग लगते हैं।
मैंने कहीं पढ़ा था कि इस मंदिर की मूर्तियां बदली भी जाती हैं। मैंने इसके बार में एक पंडित से पूछा तो उन्होंने बताया कि हां मूर्तियां बदली जाती हैं। हिंदू पंचांग के मुताबिक जब कभी साल में दो आसाढ़ लगता है, तब भगवान की मूर्ति बदली जाती है। ऐसा 12-15 सालों में एक बार होता है।
उस वक्त पूरे शहर की बिजली काट दी जाती है। अंधेरा कर दिया जाता है। मंदिर के बाहर कड़ा पहरा होता है, ताकि कोई बाहर से अंदर नहीं आ सके।
जिस पुजारी की जिम्मेदारी होती है मूर्ति बदलने की, उनकी आंखों पर पट्टी बांध दी जाती है। ताकि वे मूर्ति के ऊपर के ब्रह्म पदार्थ को नहीं देख सकें। ये ब्रह्म पदार्थ क्या है, किसी को नहीं पता। नई मूर्ति उसके ऊपर ही रख दी जाती है।’
मंदिर के पास ही थोड़ी दूरी पर गजपति यानी पुरी के राज घराने का महल है। हर साल इसी महल के सामने रथ यात्रा के लिए रथ तैयार किया जाता है। गजपति को भगवान जगन्नाथ का सेवक कहा जाता है।
इन दिनों रथ बनाने के लिए लकड़ियां इकट्ठी की जा रही हैं। इन लकड़ियों पर तिलक लगे हैं। चुनरी बांधी गई हैं। आते-जाते भक्त इन लकड़ियों को प्रणाम कर रहे हैं। हाथ से छूने की कोशिश कर रहे हैं। इन्हीं लकड़ियों से अक्षय तृतिया यानी 23 अप्रैल के दिन विधि विधान से जगन्नाथ भगवान का रथ बनना शुरू होगा।
रथ बनाने के लिए जंगल से लकड़ियां लाई जाती हैं। उससे पहले वन विभाग का अधिकारी मंदिर को सूचना भेजता है। फिर पुजारी जंगल में जाते हैं। पेड़ों की पूजा करते हैं।
इसके बाद सोने की कुल्हाड़ी से पेड़ पर कट लगाया जाता है। यह कट सदियों से महाराणा लोग (कारपेंटर) लगाते आ रहे हैं। पेड़ के गिरने के बाद भी उसकी पूजा की जाती है। फिर 12-12 फीट के तनों की पूजा की जाती है। इन्हीं तनों से रथ पर खंभे बनाए जाते हैं।
रथ बनाने में आमतौर पर नीम और हांसी की लकड़ियों का प्रयोग किया जाता है। जिसे कोड़दा, नयागांव, दसपला, गंजाम के जंगलों से लाया जाता है। मंदिर कार्यालय के एक अधिकारी के मुताबिक रथ यात्रा के लिए तीन रथ बनाए जाते हैं। इन्हें बनाने में 884 पेड़ों के तने लगते हैं। ये 12-12 फीट के होते हैं।
पुरी के वरिष्ठ पत्रकार मधुसूदन मिश्रा बताते हैं, ‘रथ बनने में करीब दो महीने लगेंगे। रथ की लकड़ी चुनने में बहुत सावधानी बरती जाती है। कोई कील वाली या कटी लकड़ी का इस्तेमाल नहीं होता है।
रथ बनाने वाले दिन में एक बार ही सादा भोजन करते हैं। इस दौरान उन्हें पूरी तरह सात्विक तरीके से रहना होता है। वे पत्नी के साथ नहीं सोते हैं। घर में कोई अनहोनी हो जाए, तो रथ बनाने के काम से उन्हें हटना पड़ता है।
मंदिर के पुजारी मुझे रथ यात्रा के पीछे की कहानी भी बताते हैं। वे कहते हैं- ‘एक बार भगवान जगन्नाथ की बहन सुभद्रा ने नगर देखने की इच्छा जाहिर की थी। तब जगन्नाथ जी और बलराम अपनी बहन को रथ पर बैठाकर नगर दिखाने निकल पड़े। इस दौरान वे मौसी के घर यानी गुंडिचा मंदिर भी गए और वहां कुछ दिन रुके थे। तभी से यहां हर साल रथ यात्रा निकाली जाती है।’
रात 9 बजे का वक्त। जगह बनारस का हरिश्चंद्र घाट। चारों तरफ सुलगती चिताएं। आग की लपटें और उठते धुएं से जलती आंखें। कोई चिता के पास नरमुंड लिए जाप कर रहा, तो कोई जलती चिता से राख उठाकर मालिश, तो कोई मुर्गे का सिर काटकर उसके खून से साधना कर रहा है। कई ऐसे भी हैं, जो इंसानी खोपड़ी में खा-पी भी रहे हैं। इन्हें देखकर मन में सिहरन होने लगती है।
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